Monday 15 August 2016

योग की परिभाषा



योग संस्कृत धातु 'युज' से उत्‍पन्न हुआ है जिसका अर्थ जुड़ना या एकजुट होना या शामिल होना है।



(१) पातंजल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृत्त निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।
(३) विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने। अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
(४) भगवद्गीता के अनुसार - सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते। (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
(५) भगवद्गीता के अनुसार - तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्। अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।
(६) आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो। मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है।
(७) बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता योगः। अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
हरी ॐ

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